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आदिवासी देवताओं की सामूहिक अराधना

    भारत की संस्कृति, मान्यताओं, परम्पराओं की वजह से दुनिया भर में प्रसिद्ध है । भारत को त्योहारों का देश कहा जाता है जहां आये दिन कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है । वर्ष भर देश के अलग-अलग हिस्सों में लोग अलग-अलग परम्पराओं के साथ उत्सव, अनुष्ठान, मेला, पूजा आदि का आयोजन करते है|

    रत के उत्तर-पूर्व में एक राज्य त्रिपुरा स्थित है । यहां लगभग 30 लाख लोग रहते है जिसमें 29 प्रतिशत जन-संख्या आदिवासी जनजातियों की है । इन आदिवासियों की अनेकों आश्चर्य जनक परम्पराएं है जिनमें से एक ऐसी परंपरा है जो सभी के लिए बहुत खास है, जिसमें एक साथ चौदह देवताओं की सामूहिक पूजा का आयोजन किया जाता है । यह आयोजन स्थल अगरतला से 15 किलोमीटर दूर खैरनगर के पास
    स्थित है । इस मंदिर का निर्माण राजा कृष्ण मानिक्य ने अठारहवीं शताब्दी के मध्य में करवाया था । प्राचीन मंदिर अगरतला शहर से 57 किलोमीटर दूर दक्षिण में उदयपुर के पास है । प्राचीन इतिहास राजमाला के अनुसार इस पूजा की शुरुआत राजा त्रिलोचन ने की थी जो महाभारत काल के राजा युधिष्ठिर के समकालीन थे । तभी से ये चौदह देवता राज परिवार के साथ सभी अदिवासियों के कुल देवता हैं । इन देवताओं की स्थापना आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को हुई थी इसलिये प्रतिवर्ष इस दिन यहां इन चौदह देवताओं की पूजा की जाती है । ये चौदह देवता हर, उमा, हरी, मां, वाणी, कुमार, गणम्मा, विधि, पृथ्वी, समुद्र, गंगा, शिखी, काम और हिमाद्री है, जिस जगह पर यह पूजा की जाती है वहां इन देवताओं की पूर्ण मुर्तिया नहीं है केवल उनका सर है । इन मूर्तियों में ग्यारह मूर्तियां अष्टधातु की है और शेष तीन मूर्तियां सोने की है । इन मूर्तियों आदिवासी नाम के बारे में किसी को नहीं पता सिर्फ मंदिर का पुजारी जनता है जिसे चंताई कहते है और पीढ़ी दर पीड़ी उसके वंशजो को ही आदिवासी नाम के बारे में पता होता है । यहां के लोगों का मानना है कि नामों का गुप्त रहना ही पवित्रता और
    जागृत देवता के लिए जरूरी है ।

    यह पूजन सात दिनों तक चलता है । सही मुहूर्त देख कर पूजा वाले दिन चंताईराजा की भेषभूषा में आगे-आगे चलता है और उनके आगे उनका अंगरक्षक चलता है जो तलवार और ढाल लेकर चलता है । चंताई के पीछे उसके 14 सेवक होते है जिनके हाथों में इन चौदह देवताओं की एक-एक मूर्ति गोद में होती है । सभी दर्शनार्थियों के साथ ये लोग पूजन स्थल पर जाते है जहां नदी में स्नान के बाद श्रद्धालु मूर्तियों को पूजा स्थल में स्थापित करते है । इस आयोजन को करने में अब सरकार भी इन आदिवासियों की मदद करती है । चंताई द्वारा पहनी जाने वाली विशेष प्रकार की सोने की माला भी सरकारी ट्रेजरी में सुरक्षित रहती है, जो इन्हीं दिनों खजाने से निकाल कर चंताई को दी जाती है । इस पूजा में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण जीव बलि देना है । इस दिन हजारों की संख्या में जानवरों की बलि दी जाती है । लोगों का मानना है कि पुराने समय में यहां नरबलि की प्रथा थी जिसे राजा गोविंद मानक्य ने 17वीं शताब्दी में इस नरबलि प्रथा पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया । उसके बाद नरबलि के प्रतीक रूप में मिट्टी से बने आदमी की प्रतीकात्मक बलि दी जाने लगी । इस पूजा में चौदह देवताओं की पूजा की जाती है और पूरे साल हरशंकर, उमापार्वती और हरि विष्णु की पूजा की जाती है । अन्य सभी देवताओं को बक्से में बंद करके चंताई की देख-रेख में रख दिया जाता है । इस पूजा में त्रिपुरा के हजारों आदिवासी एकत्र होते है और धूम-धाम में पूजा की क्रियाविधि को कार्यान्वित करते है । इस उत्सव के माध्यम से यहां के लोग अपनी पुरानी संस्कृति और परंपरा को जीवित रखने का प्रयास कर रहे है|

    प्राचीन इतिहास राजमाला के अनुसार इस पूजा की शुरुआत राजा त्रिलोचन ने की थी जो महाभारत काल के राजा युधिष्ठिर के समकालीन थे । तभी से ये चौदह देवता राज परिवार के साथ सभी अदिवासियों के कुल देवता हैं ।

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